जीवित्पुत्रिका व्रत
जीवित्पुत्रिका व्रत, जिसे जिउतिया व्रत भी कहा जाता है, अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। यह व्रत माताओं द्वारा पुत्र की मंगल कामना के लिए किया जाता है और इसे निर्जल व्रत के रूप में मनाया जाता है। आश्विन मास की कृष्ण पक्ष के सप्तमी से नवमी तक, इस व्रत का पालन किया जाता है। इस अवधि के दौरान पूरे दिन और रात्रि में पानी नहीं पिया जाता है। यह त्योहार विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल में प्रचलित है और संतान की सुरक्षा और लंबी आयु के लिए इसे अत्यधिक महत्व दिया जाता है।
जिउतिया का महत्व
उपवास, जिसे भक्ति और उपासना का एक रूप माना जाता है। उपवास मनुष्य में संयम, त्याग, प्रेम और श्रद्धा की भावना को दर्शाता है। यह विशेष रूप से सुहागन स्त्रियों द्वारा संतान की प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस व्रत का पालन संतान की खुशहाली और परंपराओं से मुक्ति के लिए भी किया जाता है। संतान की लंबी आयु के लिए भी इसे बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस व्रत को वंश वृद्धि के लिए विशेष माना जाता है और माना जाता है कि जो भी स्त्री इसे समर्पित भाव से करती है, उसके संतान को यश की प्राप्ति होती है और समाज में भी उसकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है।
जिउतिया की पौराणिक कथा
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। जब महाभारत का युद्ध हुआ तो उस युद्ध में अश्वत्थामा के पिता की मृत्यु हो गई जिससे वह बहुत नाराज हुएं और उनके बदले की भावना इतनी बढ़ गई कि उन्होने पांडवों के शिविर में घुसकर सोते हुए पांच लोगों को पांडव समझ का मार दिया लेकिन यह सभी पुत्र द्रौपदी के थें। अश्वत्थामा के इस अपराध के कारण अर्जुन ने उसे बंदी बना लिया। साथ ही दिव्या मणी भी छीन लिया जिसके फलस्वरूप अश्वत्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया।
इस ब्रह्मास्त्र को निष्फल करना नामुमकिन था और उत्तरा की संतान का जन्म लेना भी बहुत ही आवश्यक था। इस समस्या को हल करने के लिए श्री कृष्ण जी ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को दे दिया। फलस्वरूप उत्तरा की संतान गर्भ में ही पूर्नजीवित हो गई। गर्भ में मरकर ही जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ, तभी से इस व्रत का प्रारम्भ हुआ।
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जिउतिया व्रत की प्रसिद्ध कथा
एक बार जंगल में चील और लोमड़ी धूम रह रहे थें। उन्होंने मानव जाति को इस व्रत का पालन करते देखा और उसकी पूरी कथा सुनी। चील ने इस पूजा को ध्यान से सुना और इसके विशेष महत्व को समझा। तब उन्होंने भी इस व्रत का पालन करने का संकल्प लिया परन्तु उपवास के दौरान लोमड़ी भूख-प्यास से बेहोश हो गई और चुपके से भोजन कर ली । वहीं दूसरी ओर, चील ने इस पूजा का पालन पूरी श्रद्धा और विधिपूर्वक किया जिसके फलस्वरूप लोमड़ी की सभी संतान जन्म के कुछ दिन बाद ही मर गईं जबकि चील की संतान लम्बी आयु पाकर धन्य हो गईं।
नागवंश से जुड़ी कहानी
इस कथा के अनुसार, जीमूतवाहन गंधर्व के एक महान और बुद्धिमान राजा थें। जीमूतवाहन अपने राज्य के शासन से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने अपने भाइयों को राज्य की जिम्मेदारी सौंप दी और अपने पिता की सेवा में जंगल में भटकने लगें। इस दौरान उन्होंने एक बूढ़ी महिला को रोते हुए देखा और उससे रोने का कारण पूछा। बूढ़ी महिला ने बताया कि वह नागवंशी परिवार से है और उनका एक ही बेटा है। एक शपथ के अनुसार प्रतिदिन एक सांप पक्षिराज गरुड़ को भोजन के रूप में चढ़ाया जाता है और आज उसके बेटे की बारी है। इस पर जीमूतवाहन ने बूढ़ी महिला को संबोधित करते हुए कहा, माँ, तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हारे बेटे को जिंदा वापस लाउंगा।
जीमूतवाहन खुद गरुड़ का चारा बनने के लिए जंगल की चट्टान पर लेट जाते हैं। वहां गरुड़ आता है और अपनी उंगलियों से लाल कपड़े से ढके हुए जीमूतवाहन को पकड़कर चट्टान की चोटी पर चढ़ जाता है। गरुड़ को बहुत हैरानी हुई, क्योंकि जीमूतवाहन को मौत का खतरा था फिर भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहा था, तब गरुड़ ने जीमूतवाहन से उसकी पूरी कहानी सुनी और उसकी वीरता और दयालुता से प्रभावित हुआ। इसके परिणामस्वरूप, गरुड़ ने जीमूतवाहन से वादा किया कि वह अब सांपों से कोई भी बलिदान नही लेगा। इस प्रकार, जिमूतवाहन के योग्यता और उसके उदार व्यवहार ने जिउतिया व्रत के महत्व को और भी प्रमुख बना दिया।
जिउतिया व्रत की पूजन विधि
यह व्रत तीन दिनों तक मनाया जाता है और तीनों दिनों की विधि अलग-अलग होती है।
1. नहाई खाई – यह जिउतिया व्रत का पहला दिन होता है और इसी दिन से व्रत की शुरुआत होती है। इस दिन स्नान करने के बाद, स्त्रियाँ केवल एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद कुछ नहीं खाती हैं।
2. खुर जिउतिया- यह जिउतिया व्रत का दूसरा दिन होता है और यह दिन सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन स्त्रियाँ पूरे दिन निर्जल व्रत करती हैं।
3. पारणः यह जिउतिया व्रत का अंतिम दिन होता है। इस दिन स्त्रियाँ बहुत कुछ खाती हैं। पहले भोजन में मरुवा की रोटी ली जाती है। उसके बाद झोर, भात, साग और रोटी खाई जाती है।
जिउतिया व्रत की पूजा विधि
✨ सर्वप्रथम जल्दी उठकर स्नान करने के पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
✨उसके बाद भोर में ही गाय के गोबर से पूजा स्थल को साफ करें।
✨उसके बाद एक छोटे से तालाब के पास एक पाकड़ की डाल लाकर खड़ी करें।
✨उसके बाद शालीवाहन राजा के पुत्र धर्मात्मा जीमूतवाहन की मूर्ति जल के पात्र में स्थापित करें।
✨उसके बाद उन्हें दीप, धूप, अक्षत, रोली, लाल और पीली रुई से सजाएं और भोग भी लगाएं।
✨भोग अर्पण करने के बाद मिट्टी या गाय के गोबर से चील और लोमड़ी की मूर्ति बनायें ।
✨इसके बाद माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगायें।
✨पूजा के अंत में जिउतिया व्रत की कथा सुनें या पढ़ें।
✨माँ को 16 पेडें़, 16 दूब की माला, 16 खड़े चावल, 16 गाठ का धागा, 16 लौंग, 16 इलायची, 16 पान, 16 सुपारी और श्रृंगार की वस्तुएं अर्पित करें।
व्रत की शुभ तिथि एवं शुभ मुहूर्त
अष्टमी तिथि प्रारम्भ – 24 सितम्बर 2024 को रात्रि 12ः 38 से,
अष्टमी तिथि समाप्त – 25 सितम्बर 2024 को रात्रि 12ः 10तक।