ज्योतिष वेदों का एक प्रमुख अंग है। वेदों के अध्ययन में छह वेदांगों को मान्यता दी गई है: शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प।
ज्योतिष शास्त्र भविष्य की घटनाओं का संकेत देता है, लेकिन उन संकेतों का सही उपयोग करना हमारे विवेक पर निर्भर करता है। यदि नेत्र हमें खतरे की ओर इशारा करें और हम आलस्य या किसी अन्य कारण से उस खतरे से बचने का प्रयास न करें, तो यह नेत्रों का दोष नहीं है, बल्कि हमारा व्यक्तिगत दोष है। इसी प्रकार, ज्योतिष शास्त्र द्वारा दी गई जानकारी का सही उपयोग करना भी हमारी जिम्मेदारी है।
आचार्य कमलाकर भट्ट ने स्वग्रन्थ सिद्धान्ततत्वविवेक में ज्योतिषशास्त्र के ज्ञानोपदेश का उल्लेख इस प्रकार किया है-
सर्वप्रथम ब्रह्मा जी से ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात, ब्रह्मा जी ने नारद जी को, चंद्रमा ने शौनकादि ऋषियों को, नारायण ने वशिष्ठ और रोमक को, वशिष्ठ ने माण्डव्य को और सूर्य ने मय को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान दिया था। इसका मूल श्लोक इस प्रकार है:
ब्रह्मा प्राह च नारदाय, हिमगुर्यच्छौनकायामलं
माण्डव्याय वशिष्ठसंज्ञकमुनिः सूर्यो मयायाह यत्।
ज्योतिषशास्त्र के अष्टादश प्रवर्तक
सूर्यः पितामहो व्यासो वशिष्ठोऽत्रि पराशरः।
कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मुनिरंगिराः।।
लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः।
शौनकोष्टादशश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्त्तकाः।।
सूर्य, पितामह, वेदव्यास, वशिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु और शौनकादि अष्टादश महर्षियों को ज्योतिषशास्त्र का प्रवर्तक कहा गया है।
ज्योतिषशास्त्र: कालविधान शास्त्र का परिचय
ज्योतिषशास्त्र को ‘कालविधान शास्त्र’ भी कहा जाता है, क्योंकि यह शास्त्र काल का निरूपण करता है। मानव जीवन और कर्म काल के अधीन होते हैं। आचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ ‘लघुजातक’ में लिखा है:
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाऽशुभं तस्य कर्मणः पंक्तिम्।
व्यञ्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव।।
अर्थात, पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही मनुष्य का जन्म, उसकी प्रवृत्तियाँ और उसके भाग्य का निर्माण होता है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान की परम्परा में ‘वेद’ को सर्वविद्या का मूल कहा गया है। उसी वेद के चक्षुरूपी अंग को मनीषियों द्वारा ज्योतिषशास्त्र की संज्ञा प्रदान की गई है।