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क्या है महाकाल कवच इसके अद्भुत लाभ, फल एवं महत्व

क्या है महाकाल कवच इसके अद्भुत लाभ, फल एवं महत्व

क्या है महाकाल कवच इसके अद्भुत लाभ, फल एवं महत्व

हमारे सनातन धर्म में कई देवी और देवता हैं भगवान और भगवती जी है परमात्मा के अनेक रुप है इनमें त्रिदेव प्रमुख है। इसमें एक महाकाल भी हैं इनकी महिमा अपरंपार है इनकी महिमा जैसा कोई कवच नही महाकाल कवच को अमोघ शिव कवच भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे सभी प्रकार के कष्ट पाप दोष मुक्त हो जाते है। जिसमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक सभी कष्ट शामिल है जिससे हमें मुक्ति मिलती है कवच का वास्तविक अर्थ ही है रक्षा करना। प्राचीन या पौराणिक समय में जब कोई क्षत्रिय युद्ध आरंभ करता है तो वह सर्वप्रथम किसी लौह कवच को अपने शरीर पर धारण करता है जिससे वह शत्रु के वार से सुरक्षा प्राप्त करें। इसी तरह जब किसी व्यक्ति को दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों से मुक्ति पाने के लिए वह अमोघ शिव कवच का प्रयोग रक्षा के लिए करता है।

महाकाल कवच के लाभ

☸ महाकाल कवच को हमेशा अमोघ शिव के नाम से जाना जाता है।
☸ अमोघ शिव का पाठ करने से व्यक्ति को अकाल मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
☸ इस कवच के प्रभाव से ही व्यक्ति को बीमारियों और विपत्तियों का सामना नही करना पड़ता है। वह सभी चिंताओ से मुक्त हो जाता है।
☸ शिव कवच का पाठ करने वाले व्यक्तियों के आभामंडल में एक सुरक्षा घेेेरा सा बना रहता है। वह सभी बुराइयों से कोसो दूर रहता है।
☸ साधक ही नही साधक के परिवार जनों को भी हर प्रकार से सुरक्षा प्रदान करता है।

महाकाल कवच पूजा विधि

☸ भगवान शिव की आराधना करते समय हमेशा आचमन कर पविति धारण करना चाहिए।
☸ अपने ऊपर और पूजा सामग्री के ऊपर गंगाजल छिड़के और संकल्प लेकर महाकाल का ध्यान करें।
☸ दिये गये सर्व शक्तिशाली शिव मंत्र का उच्चारण करने के पश्चात शिव जी के समक्ष नैवेद्य और पुष्पादि अर्पित करें।

क्यों धारण किया जाता है महाकाल कवच

☸ चिताओं से मुक्ति और सकारात्मकता से भरपूर रहने के लिए महाकाल कवच का प्रयोग कर सकते है।
☸ शक्तिशाली अमोघ शिव कवच व्यक्ति को एक आरोग्य जीवन प्रदान करता है।
☸ अकाल मृत्यु और अन्य प्रकार के भय से हमारी रक्षा करेगा।

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भगवान शिव के महाकाल रुप की उत्पत्ति कैसे हुई

भगवान शिव के अनेक नाम है। जैसे शंकर, शंभू, रुद्रा, महाकाल इत्यादि जिन के पीछे कोई न कोई पौराणिक रहस्य जुड़ा हुआ है। सभी ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों मे इस प्रकार वर्णित है। प्राचीन काल में उज्जयिनी में राजा चन्द्रसेन राज करता था वह परम शिव भक्त था एक दिन श्री कर नाम का नामक पांच वर्ष का एक गोप गोपाल अपनी मां के साथ इधर से घूम रहा था। राजा का शिव पूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतुहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिव पूजन करने लगा। वह रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठाकर लाया और घर आकर उसी पत्थर को शिव के रुप में स्थापित कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धा पूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिए बुलाने लगी किन्तु वह पूजा छोड़कर उठने के लिए तैयार नही हुआ। अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर फेंक दिया इससे दुखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान शिव को पुकारने लगा और रोने लगा और रोते-रोते बेहोश होकर गिर पड़ा। बालक की अपने प्रति प्रेम व भक्ति देखकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न हुए।

बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अति विशााल स्वर्ण और रत्नों से बना मंदिर खड़ा है उस मंदिर के ऊपर और अन्दर एक बहुत ही प्रकाश पूर्ण भास्कर, तेजस्वी, ज्योतिर्लिंग खड़ा है बच्चा प्रसन्नता और आनन्द से विभोर होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगा। माता को जब यह सब ज्ञात हुआ त बवह अपने प्यारे बालक के पास गयी और उसे गले से लगा लिया। पीछे राजा चन्द्रसेन ने भी वहां पहुंच कर उस बच्चे की भक्ति और सिद्धि की बड़ी सराहना की। धीरे-धीरे वहां बड़ी भीड़ जुट गयी इतने में उस स्थान पर हनुमान जी प्रकट हो गये उन्होंने कहा हे पुत्र भगवान शिव शीघ्र फल देने वाले देवता है तथा तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने तुम्हे ऐसा फल प्रदान किया है जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ो वर्षों के बाद तपस्या करने पर फल की प्राप्ति कराते हैं। इस गोप बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नन्द गोप का जन्म होगा। द्वापरयुग में भगवान विष्णु कृष्ण अवतार लेकर उनके वहां तरह-तरह के लीलाएं करेंगे।

दूसरी कथा

अवंतिका पूरी में एक परम शिव भक्त ब्राह्मण रहा करता था। जिसे एक दुषण नामक राक्षस ने परेशान कर दिया था। उस राक्षस को ब्रह्म जी से वरदान प्राप्त था जिसके कारण वह सब लोगों पर अत्याचार करता है। जब राक्षस के तंग किये जाने पर सभी शिव भक्त तकलीफ में रहने लगा तब महाकाल भगवान शंकर को बहुत क्रोध आया और भगवान शिव ने महाकाल का रुप धारण कर उस राक्षस का वध कर दिया। इस घटना के बाद भगवान शिव को महाकाल से नाम से जाना जाने लगा। जो भी जातक श्रद्धा पूर्वक महादेव की पूजा अर्चना करते हैं उन्हें महाकाल का चमत्कार अक्सर ही दिखाई देगा।

महाकाल मंत्र

ऊॅ हौं जूं सः। ऊॅ भूः भुवः स्वः ऊॅ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।।
शिव रक्षा कवच (स्त्रोत) हाथ में जल लेकर विनियोग को पढ़ें।

ऊँ अस्य श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः,
श्रीसदाशिवो देवता, अनुष्टुप् छनदः, श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थं शिवरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ।

अर्थः- विनियोग इस शिवरक्षास्तोत्र मन्त्र के याज्ञवल्क्य ऋषि हैं, श्रीसदाशिव देवता हैं और अनुष्टुप छन्द है, श्रीसदाशिव की प्रसन्नता के लिए शिवरक्षास्तोत्र के जप में इसका विनियोग किया जाता है।

चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ।।1।।

अर्थः- देवाधिदेव महादेव का यह परम पवित्र चरित्र चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की सिद्धि प्रदान करने वाला दाशन है, यह अतीव उदार है. इसकी उदारता का पार नहीं है।

गौरीविनायकोपेतं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नररू ।।2।।

अर्थः- साधक को गौरी और विनायक से युक्त, पाँच मुख वाले दश भुजाधारी त्र्यम्बक भगवान शिव का ध्यान करके शिवरक्षास्तोत्र का पाठ करना चाहिए।

गंगाधररू शिररू पातु भालमर्धेन्दुशेखररू ।
नयने मदनध्वंसी कर्णौ सर्पविभूषणरू ।।3।।

अर्थः- गंगा को जटाजूट में धारण करने वाले गंगाधर शिव मेरे मस्त्क की, शिरोभूषण के रूप में अर्धचन्द्र को धारण करने वाले अर्धेन्दुशेखर मेरे ललाट की, मदन को ध्वंस करने वाले मदनदहन मेरे दोनों नेत्रों की, सर्प को आभूषण के रूप में धारण करने वाले सर्पविभूषण शिव मेरे कानों की रक्षा करें।

घ्राणं पातु पुरारातिर्मुखं पातु जगत्पतिरू।
जिह्वां वागीश्वररू पातु कन्धरां शितिकन्धररू।।4।।

अर्थः- त्रिपुरासुर के विनाशक पुराराति मेरे घ्राण (नाक) की, जगत की रक्षा करने वाले जगत्पति मेरे मुख की, वाणी के स्वामी वागीश्वर मेरी जिह्वा की, शितिकन्धर (नीलकण्ठ) मेरी गर्दन की रक्षा करें।

श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्वधुरन्धरः।
भुजौ भूभारसंहर्ता करौ पातु पिनाकधृक् ।।5।।

अर्थः- श्री अर्थात सरस्वती यानी वाणी निवास करती है जिनके कण्ठ में, ऎसे श्रीकण्ठ मेरे कण्ठ की, विश्व की धुरी को धारण करने वाले विश्वधुरन्धर शिव मेरे दोनों कन्धों की, पृथ्वी के भारस्वरुप दैत्यादि का संहार करने वाले भूभारसंहर्ता शिव मेरी दोनों भुजाओं की, पिनाक धारण करने वाले पिनाकधृक मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें।

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हृदयं शंकरः पातु जठरं गिरिजापतिः ।
नाभिं मृत्युंजयः पातु कटी व्याघ्राजिनाम्बरः ।।6।।

अर्थः- भगवान शंकर मेरे हृदय की और गिरिजापति मेरे जठरदेश की रक्षा करें. भगवान मृत्युंजय मेरी नाभि की रक्षा करें तथा व्याघ्रचर्म को वस्त्ररूप में धारण करने वाले भगवान शिव मेरे कटि-प्रदेश की रक्षा करें।

सक्थिनी पातु दीनार्तशरणागतवत्सलः ।
ऊः महेश्वररू पातु जानुनी जगदीश्वरः ।।7।।

अर्थः- दीन, आर्त और शरणागतों के प्रेमी दीनार्तशरणागतवत्सल मेरे समस्त सक्थियों (हड्डियों) की, महेश्वर मेरे ऊरूओं तथा जगदीश्वर मेरे जानुओं की रक्षा करें।

जंघे पातु जगत्कर्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ।
चरणौ करुणासिन्धुः सर्वांगानि सदाशिवः ।।8।।

अर्थः- जगत्कर्ता मेरे जंघाओं की, गणाधिप दोनों गुल्फों (एड़ी की ऊपरी ग्रंथि) की, करुणासिन्धु दोनों चरणों की तथा भगवान सदाशिव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें।

एतां शिवबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।।9।।

अर्थः- जो सुकृती साधक कल्याणकारिणी शक्ति से युक्त इस शिवरक्षास्तोत्र का पाठ करता है, वह समस्त कामनाओं का उपभोग कर अन्त में शिवसायुज्य को प्राप्त करता है।

ग्रहभूतपिशाचाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।
दूरादाशु पलायन्ते शिवनामाभिरक्षणात् ।।10।।

अर्थः- त्रिलोक में जितने ग्रह, भूत, पिशाच आदि विचरण करते हैं, वे सभी इस शिवरअस्तोत्र के पाठ मात्र से ही तत्क्षण दूर भाग जाते हैं।

अभयंकरनामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।
भक्त्या बिभर्ति यरू कण्ठे तस्य वश्यं जगत्त्रयम् ।।11।।

अर्थः- जो साधक भक्तिपूर्वक पार्वतीपति शंकर के इस “अभयंकर” नामक कवच को कण्ठ में धारण करता है, तीनों लोक उसके अधीन हो जाते हैं।

इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथोेदिशत् ।
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यस्तथोलिखत् ।।12।।

अर्थः- भगवान नारायण ने स्वप्न में इस “शिवरक्षास्तोत्र” का इस प्रकार उपदेश किया, योगीन्द्र मुनि याज्ञवल्क्य ने प्रातरूकाल उठकर उसी प्रकार इस स्तोत्र को लिख लिया।

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