पितृ पक्ष हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्व रखता है और इस दौरान पितरों की आत्मा की शांति के लिए विशेष पूजा-अर्चना, तर्पण और पिंडदान जैसे कर्म किए जाते हैं। पितरों का श्राद्ध करने का अधिकार परिवार के विभिन्न सदस्यों को होता है और इसके लिए पुराणों में विस्तृत नियम दिए गए हैं। आइए इन नियमों को Astrologer K. M. Sinha द्वारा विस्तार से समझते हैं।
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पुत्र और पौत्र का अधिकार:
पितरों का श्राद्ध करने का सबसे प्रमुख अधिकार पुत्रों का होता है। यदि मृतक का पुत्र जीवित है, तो श्राद्ध कर्म उसी के द्वारा किया जाना चाहिए। यह हिंदू धर्म में एक प्रमुख कर्तव्य माना जाता है। यदि पुत्र नहीं है, तो पौत्र (पुत्र का पुत्र) भी पितरों का श्राद्ध कर सकता है। यह पितरों के प्रति सम्मान और कर्तव्य का प्रतीक है, जो परिवार की पीढ़ियों में चलता रहता है।
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भाई-भतीजे और अन्य संबंधी:
यदि किसी व्यक्ति का कोई पुत्र नहीं है, तो उसके भाई, भतीजे, या मामा जैसे निकट संबंधी श्राद्ध कर सकते हैं। यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि किसी भी परिस्थिति में पितरों का श्राद्ध कर्म न रुके। यदि मामा या ममेरे भाई भी नहीं हैं, तो कुल-पुरोहित या आचार्य द्वारा श्राद्ध कराया जा सकता है। यह दिखाता है कि पितरों का श्राद्ध करना कितना महत्वपूर्ण है, चाहे वह किसी भी माध्यम से हो।
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पत्नी का श्राद्ध अधिकार:
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, अगर किसी व्यक्ति का पुत्र या अन्य कोई संबंधी नहीं है जो श्राद्ध कर सके, तो उसकी पत्नी भी श्राद्ध कर्म कर सकती है। हालांकि, पत्नी को श्राद्ध मंत्रों का उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं होती; वह केवल सादे ढंग से श्राद्ध कर सकती है। यह नियम इस बात को दर्शाता है कि पितरों का श्राद्ध कर्म किसी भी परिस्थिति में नहीं रुकना चाहिए और इसके लिए पत्नी भी आगे आ सकती है।
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बेटी के पुत्र (नाती) का अधिकार:
यदि किसी व्यक्ति का पुत्र नहीं है, तो उसकी बेटी का पुत्र, जिसे नाती कहा जाता है, भी श्राद्ध कर सकता है। यह विशेषाधिकार पुराणों में इसलिए दिया गया है ताकि श्राद्ध कर्म में किसी प्रकार की कमी न रह जाए। यह परिवार के वंशजों के बीच संबंधों को और भी मजबूती से जोड़ता है।
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कुंवारी कन्याओं का पिंडदान:
कुंवारी कन्याओं का पिंडदान उनके माता-पिता द्वारा किया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण नियम है, जो दिखाता है कि माता-पिता के लिए अपनी संतान का श्राद्ध करना भी महत्वपूर्ण है, चाहे वह पुत्र हो या पुत्री। यदि बेटी शादीशुदा है और उसके परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला नहीं है, तो उसके पिता को भी उसका पिंडदान करने का अधिकार दिया गया है।
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दामाद और ससुर का पिंडदान:
एक अन्य महत्वपूर्ण नियम यह है कि दामाद और ससुर एक-दूसरे के लिए पिंडदान कर सकते हैं। यह नियम पारिवारिक संबंधों के महत्व को और भी स्पष्ट करता है और यह सुनिश्चित करता है कि पितरों का श्राद्ध कर्म किसी भी परिस्थिति में न रुके।
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बहू का अधिकार:
बहू को भी यह अधिकार दिया गया है कि वह अपनी सास का पिंडदान कर सकती है। यह नियम पितृ पक्ष के महत्व को दर्शाता है और यह सुनिश्चित करता है कि पितरों का श्राद्ध परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा किया जा सकता है, जो उसके लिए जिम्मेदार है।
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कुल-पुरोहित या आचार्य का श्राद्ध कर्म:
अगर परिवार में उपयुक्त व्यक्ति नहीं है, तो कुल-पुरोहित या आचार्य भी श्राद्ध कर सकते हैं। यह इसलिए किया जाता है ताकि किसी भी परिस्थिति में श्राद्ध कर्म न रुके और पितरों की आत्मा की शांति के लिए आवश्यक विधियाँ पूरी की जा सकें।
पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से लाभ:
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, पितृ पक्ष के दौरान पितरों की आत्मा को तृप्त करने वाली वस्तुओं का दान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यम स्मृति में भी बताया गया है कि इन 16 दिनों में पितरों के लिए विशेष पूजा-अर्चना करना अत्यधिक लाभकारी होता है। पुराणों के अनुसार, श्राद्ध पक्ष के दौरान पितरों को तर्पण, पिंडदान, ब्राह्मण भोजन और अन्य प्रकार के दान करना आवश्यक है, क्योंकि इससे पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं।
इस प्रकार, पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करना न केवल एक धार्मिक कर्तव्य है, बल्कि यह परिवार के संबंधों को भी मजबूत करता है और पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करता है।