हम सभी कुण्डली के बारे में भली-भाँति जानते है। कुण्डली को 12 बराबर भागों मे विभाजित किया गया है और प्रत्येक भाग जीवन के किसी न किसी चक्र को दर्शाता है। कुण्डली के भागों को पणफर, आपोक्लिम, त्रिक भाव, त्रिकोण भाव एवं केन्द्र भाव से प्रदर्शित किया जाता है। इन भाव की अलग-अलग महत्ता है आज हम इन्ही भाव मे से केन्द्र भाव एवं त्रिकोण भाव की महत्ता को जानेंगे। जो इस प्रकार से हैः-
कुण्डली का विश्लेषण करते समय केन्द्रों और त्रिकोणों का भी ध्यान रखा जाता है जिससे विश्लेषण में कोई त्रुटि न हो। यदि केन्द्र और त्रिकोण शुभ ग्रह के प्रभाव हो तो जन्म कुण्डली बलवान होती है। कुण्डली का पंचम भाव और नवम भाव त्रिकोण कहलाता है क्योंकि पंचम भाव पूर्व जन्म के संचित अच्छे या बुरे कर्मों का तथा नवम भाव धार्मिक कार्यों को दर्शाता है। भाव स्वामी पर त्रिकोणेशों का प्रभाव जातक का सुरक्षा प्रदान करता है, यदि त्रिकोणेश किसी भी भाव या भावेश से दृष्टि या युति से संबंध बनाये तो उनके कारतत्व की रक्षा करता है।
स्थिति
जिस भाव में कोई भी ग्रह स्थित होता है वहा वह अपनी स्थिति के अनुसार उस भाव को प्रभावित करता है। साथ ही भाव से सम्बन्धित परिणाम देने की क्षमता रखते है।
दृष्टि
प्रत्येक ग्रह जिन भावों को अपनी दृष्टियों से रखते हैं उन भावों के कारकत्वों मे अपनी शुभाशुभ दृष्टि से प्रभावित करते हैं तथा उन भावों के परिणामों को अपनी दशा अंतर्दशा में देने मे सक्षम होते है।
युति
जब किसी भी भाव में दो या दो से अधिक ग्रह स्थित हो तो उन ग्रहों के मध्य युति का संबंध होता है। जिसके कारण वे जिन भाव के स्वामी होते है तथा जिस भाव में विराजमान होते है उनसे सम्बन्धित भावों का फल देने में सक्षम होते है चाहे वह फल शुभ हो या अशुभ हो।
राशि परिवर्तन
यदि दो ग्रह एक दूसरे के राशि में विराजमान हो तो उसे राशि परिवर्तन कहते है। जैसे मंगल कर्क राशि में स्थित हो तथा चन्द्रमा मेष राशि में विराजमान हो। ऐसे ग्रह अपनी दशा, अंतर्दशा में एक दूसरे के भावों के तथा कारकत्वों के फल देेने में सक्षम होते है।
यदि जातक की कुण्डली में शुभ एवं अशुभ फल जैसे विवाह, व्यवसाय, परिवर्तन, नौकरी-व्यवसाय, संतान सुख, रोग, परिवर्तन, भू-सम्पत्ति तथा वाहन सुख इनसे सम्बन्धित फलों का निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए जो इस प्रकार हैः-
सबसे पहले ग्रहों से सम्बन्धित भाव, भावेश एवं कारक ग्रह की स्थिति की जांच करनी चाहिए। जैसे वह शुभ पंचक मे है या निर्बल अवस्था में है और उससे सम्बन्धित वर्ग कुण्डली का भी आकलन करना चाहिए।
भाव, भावेश एवं कारक ग्रह पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभावों का भी आकलन एवं नवमांश कुण्डली मे उनके बल की जाँच करें।
ग्रहों के आपस में स्थिति से बनने वाले अनेक प्रकार के योगों का भी आकलन करना चाहिए जैसे संतान हीनता, दरिद्रता, द्विविवाह, जेल जाना, अपमृत्यु, दुर्घटना इत्यादि।
संतान से सम्बनिधत परिणामों का विश्लेषण करने के लिए कुछ निम्न नियम है।
जातक की कुण्डली में संतान के सुख का विश्लेषण करने के लिए सर्वप्रथम पंचम भाव और उस पर पड़ने वाले विभिन्न ग्रहों के शुभ एवं अशुभ प्रभावों को समझें।
उसके बाद पंचम भाव के स्वामी की स्थिति देखे कि वह किस भाव में स्थित है और युति व दृष्टि संबंध के कारण पंचम भाव स्वामी पर अन्य ग्रहोें की दृष्टि क्या है ?
अब संतान के कारक बृहस्पति की स्थिति का पता लगाएं तथा उससे पंचम भाव एवं उस पर पड़ने वाले अन्य ग्रहों के प्रभावों के बारे में जानें।
उसके पश्चात संतान से सम्बन्धित वर्ग कुण्डली में सप्तमांश का लग्न, लग्नेश एवं पंचम भाव पंचमेश की स्थिति तथा कारक बृहस्पति की जाच करें।
यदि आप, भावेश, कारक और कारक से सम्बन्धित भाव शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो जातक को उस भाव से सम्बन्धित शुभ फल मिलते है तथा यदि वे नैसर्गिक अशुभ ग्रहों के प्रभाव में हों या निर्बल हो तो जातक को सम्बन्धित भाव से अशुभ फल मिलते है। इसलिए भाव के स्वामी के अधिष्ठित राशि पर भी दृष्टि डालनी चाहिए। इससे हमें उस भाव से सम्बन्धित फलों के मूल्यांकन मे भी सहायता मिलती है।
उस भाव से सम्बन्धित वर्ग कुण्डली में भाव स्वामी की स्थिति तथा पंचम भाव समान रुप महत्वपूर्ण है। हमें सम्बन्धित भाव और उसमें स्थित ग्रह के बल का मूल्यांकन भी करना चाहिए। जैसेः- यदि संतान भाव देखना हो, तो हमें लग्न एवं चन्द्र लग्न से पंचम भाव, पंचमेश एवं कारक बृहस्पति और सप्तमांश कुण्डली में पंचम भाव, पंचमेश का बल एवं सप्तमांश के लग्न स्वामी की स्थिति का पता लगाएं।