05 मार्च 2024 महर्षि दयानन्द सरस्वती

उन्नीसवीं शताब्दी के महान समाज सुधारकों में से एक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम सभी लोगों के द्वारा बहुत श्रद्धा से लिया जाता है। भारतीय तथा सामाजिक संस्कृति के उद्धारक और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती एक बहुत ही महान देशभक्त और भारत माता के एक सच्चे सपूत थे। इन्होंने भारत के राजनीतिक दर्शन और सांस्कृतिक विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयास किया इसके अलावा उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्रहित के उत्थान, समाज में प्रचलित अंधविश्वास और कुरीतियों को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। स्वामी ने अपने उच्च विचारों से पूरे समाज में नव चेतना का संचार जागृत किया।

इस घटना के कारण पूरी तरह बदल गया स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन

दयानन्द सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 ई0 को गुजरात के टंकारा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम अमृत भाई तथा पिता का नाम अंबा शंकर तिवारी था इनके पिता कलेक्टर थे जिसके कारण इनका परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न था। बचपन से ही स्वामी दयानन्द सरस्वती एक कुशाग्र बुद्धि के थे। अपने बचपन के समय से ही उन्होंने उपनिषदों, वेदों और धार्मिक पुस्तकों का गहन अध्ययन किया था। इन्होंने अपना पूरा जीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने में ही लगा दिया था।

स्वामी जी ब्राह्मण कुल में जन्में होने के कारण अपने पिता के साथ धार्मिक अनुष्ठानों तथा आयोजनों में सम्मिलित होते रहते थे। एक बार वह अपने पिता जी के साथ शिवरात्रि के अनुष्ठान में गये वहाँ उन्हें पूजन करना, उपवास करना और रातभर जागरण करना था। रात्रि में जब वह जागरण के दौरान आसन लगाकर बैठे तो उन्होंने वहाँ रखी भगवान शिव जी की मूर्ति के चारों ओर देखा की मूषक उन्हें चारों ओर से घेरे हुआ है और वहाँ रखे हुए थाली में प्रसाद को खा रहे हैं।

उसी समय महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने मन में विचार करते हुए कहा कि जब स्वयं भगवान ही अपने प्रसाद की रक्षा नही कर सकते तो इस दुनिया में सभी मनुष्य भगवान से क्या अपेक्षा रखते हैं। उसी दिन की हुई उस घटना से स्वामी दयानन्द सरस्वती आत्मज्ञान की खोज में अपना घर छोड़कर चले गये।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कि थी आर्य समाज की स्थापना

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वर्ष 1857 ई0 में गुड़ी पड़वा के दिन मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज की स्थापना का उद्देश्य इस पूरे समाज की मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक उन्नति करना था। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार आर्य समाज का मुख्य धर्म मानव धर्म ही था। इनके द्वारा लिये गये निर्णय का देश के तमाम विद्वानों और बड़े-बड़े पंडितों ने बहुत ज्यादा विरोध किया परन्तु स्वामी जी के प्रमाणिक और तार्किक ज्ञान में सभी को गलत साबित कर दिया।

आर्य समाज में मूर्ति पूजा, पशु बलि, श्राद्ध, जन्म के आधार पर जाति का निर्धारण अस्पृश्यता, बाल विवाह, तीर्थ यात्रा, पुजारी तथा प्रसाद और मंदिरों की पूजा का विरोध करता है।

आर्य समाज के द्वारा वेदों की अचूकता, कर्म सिद्धान्त, मृत्यु और पुनर्जन्म की प्रक्रिया, गायों की पवित्रता, संस्कारों के महत्व की प्रभावशीलता को कायम रखता है तथा अग्नि के लिए गये वैदिक यज्ञों के प्रभाव और सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों की भी पुष्टि करता है।

आर्य समाज द्वारा महिला शिक्षा के उत्थान के साथ ही अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने की दिशा में कार्य, विधवाओं के लिए मशीन, अनाथालयों व घरों का निर्माण, स्कूल तथा काॅलेजों का एक नेटवर्क स्थापित किया और अकाल राहत व चिकित्सा के कार्य किये गये।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के महत्वपूर्ण विचार

☸ स्वामी दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि ईर्ष्या से सभी मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए क्योंकि वे मनुष्य को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती हैं और जातक को उनके पथ से भटकाकर उनका पथ भ्रष्ट कर देती है।

☸ यदि मनुष्य का मन शांत है, उनका चित्त प्रसन्न है और हृदय हर्षित है तो निश्चय ही ये जातक के अच्छे कर्मों का फल होता है।

☸ उन्होंने कहा कि यह शरीर नश्वर है इस शरीर के जरिए हमें सिर्फ एक मौका मिला हैं स्वयं को साबित करने का मनुष्यता और आत्मविवेक क्या है।

☸ वह कहते है अहंकार एक मनुष्य के अन्दर वह स्थिति लाती है जब कोई व्यक्ति अपने आत्मबल और आत्मज्ञान को पूरी तरह से खो देता है।

☸ इसके अलावा स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि क्रोध का भोजन विवेक है। अतः इससे आपको बचके रहना चाहिए अन्यथा जातक का विवेक नष्ट हो जाने पर सब कुछ हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है।

33 Views