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Vallabhacharya Jayanti, वल्लभाचार्य जयंती

Vallabhacharya Jayanti, वल्लभाचार्य जयंती

हिन्दू धर्म के कैलेण्डर पंचांग के अनुसार वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि के दिन वल्लभाचार्य जी का जन्म हुआ था इसलिए इस दिन को अंक जयंती के रूप में मनाया जाता है। आपको बता दें कि भारत के इतिहास में वल्लभाचार्य जी एक ऐसे महान संत थें जिन्होंने ईश्वर की भक्ति के लिए एक अलग तरह का मार्ग खोजा। कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को वरूथिनी एकादशी भी होता है।

वल्लभाचार्य जयंती का महत्व

हिन्दू धर्म में महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के जयंती उत्सव मनाने का अत्यधिक महत्व होता है। इस महान संत ने ही भारत के ब्रज में एक पुष्टि सम्प्रदाय की स्थापना की थी इसी कारण से महाप्रभु कहे जाने वाले वल्लभाचार्य जी को भगवान श्री कृष्ण जी का प्रबल अनुयायी माना जाता था। मान्यता और श्री कृष्ण जी के अन्य भक्तों के अनुसार श्री वल्लभाचार्य जी ने गोवर्धन पर्वत पर प्रभु श्री कृष्ण जी के दर्शन किये थें सभी भक्त बैशाख माह के एकादशी तिथि को वल्लभाचार्य जयंती के रूप में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। कहा जाता है कि अग्नि देवता का पुर्नजन्म वल्लभाचार्य जी का है। इस दिन के मुख्य अवसर पर श्री कृष्ण जी की पूजा-आराधना अवश्य की जाती है क्योंकि वल्लभाचार्य जी श्री कृष्ण जी के बहुत बड़े भक्त थें। तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, चेन्नई और महाराष्ट्र राज्यों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व होता है।

वल्लभाचार्य जयंती का इतिहास

महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का जन्म 27 अप्रैल 1477 ई0 को छत्तीसगढ़ के चम्पारण्य में हुआ था और उनका देहांत 26 जून 1530 ई0 52 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश के कारस शहर में हुआ था। की गई कल्पना के अनुसार ब्रह्मा जी कृष्ण जी का वह अविक्रत रूप हैं जो हर स्थिति में बना रहता है। वह अत्यधिक शुद्ध और अद्वैत हैं। रमण की इच्छा से ही वह नर का रूप ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार से वल्लभाचार्य जी का भक्ति चिन्तन जीव के मध्य एक घनिष्ठ संबंध स्थापित करता है। जगत गुरू वल्लभाचार्य जी मध्य काल में सगुण भक्ति के उपासक थें तथा अपने अग्नि अवतार (वैश्वानरावतार) के रूप में जाने गये वल्लभाचार्य जी कृष्ण भक्ति शाखा के सगुण धारण के मुख्य कवि भी थें। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के सम्मान में भारत सरकार ने 1977 में प्रथम बार भारतीय मुद्रा पर उनके नाम का डाक टिकट जारी किया गया। वल्लभाचार्य जी ने कृष्ण भक्ति धारा की एक दार्शनिक पीठिका तैयार की और देशाटन करके भक्ति का प्रचार किया। श्रीमदभागवत गीता के व्यापक प्रचार से ही माधुर्य भक्ति का रास्ता दिखाया और उस रास्ते को सामान्य जल सुलभ बनाया।

कैसे बनें वल्लभ महाप्रभु वल्लभाचार्य

एक बार विजयनगर में, वल्लभ जी ने माधव और वैष्णवों के बीच में हो रही बहस में शामिल होने का फैसला किया इसमें उन्होंने ईश्वर द््वैतवादी है या गैर द््वैतवादी इसके बारे में बहस किया था। 11 वर्ष की छोटी सी उम्र में वल्लभ जी ने राजा कृष्णदेव राय जी के सामने अपनी राय निडरता से रखी और अपने विचारों का प्रतिनिधित्व किया। राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित होकर वहाँ उन्होंने बड़े-बड़े विद्वानों को पराजित किया। वहीं उनके बीच पूरे 27 दिनों तक बहस चली और वहीं उन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि प्राप्त हुई। राजा कृष्णदेव राय जी नें वल्लभ को कनकभिषेक समारोह से सम्मानित किया और स्वर्ण सिंहासन पर बैठकर इनका विधिपूर्वक पूजन किया तभी से उन्हें आचार्य के साथ-साथ जगद्गुरु के नाम से भी पुकारा जाने लगा।

उसके बाद राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें सोने के बर्तन भेंट किये जिसका वजन पूरे 100 मन था परन्तु वल्लभाचार्य जी नें उस भेंट को अस्वीकार करके राजा से यह अनुरोध किया कि वह इस भेंट को गरीब ब्राह्मणों में वितरित करें। उस समय वल्लभाचार्य जी के पास अपने लिए π मोहरें थीं जिसका उपयोग पंढ़रपुर में भगवान का आभूषण बनाने के लिए उपयोग में लाया गया।

महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की पृथ्वी परिक्रमा

मान्यता के अनुसार भगवान श्री कृष्ण जी के भक्त वल्लभाचार्य जी तीन भारतीय तीर्थों पर नंगे पैर चलें तीर्थ पर जाने से पहले उन्होंने एक सादा और सफेद धोती, एक उपरत्न और एक सफेद अंग वस्त्र पहना था इसके अलावा उन्होंने प्राचीन ग्रंथों का अर्थ बताते हुए लगभग 84 स्थानों पर भागवत का प्रवचन दिया था। वल्लभाचार्य जी ने 84 स्थानों पर जहाँ प्रवचन दिये थे उस स्थान को वर्तमान में चौरासी बैठक के रूप में जाना जाता है। जो कि तीर्थ स्थल हैं। बाद में वल्लभ जी ने लगभग 4 महीने व्रज में बिताये थें।

भगवान श्री कृष्ण जी को अर्पित किया वल्लभाचार्य जी ने अपना जीवन

मान्यताओं के अनुसार भगवान श्री कृष्ण जी नें वल्लभाचार्य जी से स्वयं एक दो बार स्वर्ग जाने के लिए कहा था जिसके बाद उन्होंने 1530 ई0 में लगभग 52 वर्ष की आयु में प्रभु श्री कृष्ण जी की कही गई बात रखी और काशी के हनुमान घाटी के पास पवित्र गंगा नदी में जाकर समाधि ले ली। हनुमान घाटी के पास ही वह एक पत्ते से बनी हुई झोपड़ी में रहते थें और वहीं रहकर अपने अंतिम दिनों में प्रभु श्री कृष्ण जी के नाम का जाप एवं स्मरण किया था। मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि प्रभु श्री कृष्ण जी स्वयं मृत पड़े हुए वल्लभाचार्य जी को अपने साथ बैकुंठ लेकर आये थें। इसी कारण से महाप्रभु वल्लभाचार्य जी को याद करने के लिए उनकी जयंती मनाई जाती है।

वल्लभाचार्य जयंती शुभ मुहूर्त

वल्लभाचार्य जयंती 04 मई 2024 को बुधवार के दिन मनाई जायेगी।
एकादशी तिथि प्रारम्भः- 03 मई 2024 को रात्रि 11ः24 मिनट से।
एकादशी तिथि समाप्तः- 04 मई 2024 को रात्रि 08ः38 मिनट पर

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